रसूले करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया कि:
" आशूरा के दिन का रोज़ा रखो और इस में यहूदियों की मुख़ालिफ़त करो, (इस तरह कि) आशूरा के दिन से पहले या बाद में एक दिन का रोज़ा रखो "
(मुसनदे अहमद,बहवाला इस्लामी महीनों के फ़ज़ाइल, पे० 17)
आशूरा का एक रोज़ा रखने पर एक साल (जो गुज़र चुका है उस) के गुनाह अल्लाह तआला मिटा देता है।
अब सवाल ये है कि हुज़ूर सरवरे कौनैन सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आशूरा के अलावा एक और रोज़ा रख कर यहूदियों की मुख़ालिफ़त का जो हुक्म दिया है, वो नवीं मोहर्रम को रखा जाए या ग्यारहवीं मोहर्रम को?
रोज़ा नवीं और दसवीं को रखें या दसवीं और ग्यारहवीं को?
इसका जवाब में है कि: हमारे ओलमा ए किराम नवीं या ग्यारहवीं में से किसी भी दिन (यानी जिस दिन सहूलत हो) रखने को दुरुस्त फरमाते हैं। लेकिन नवीं और ग्यारहवीं में से ज़्यादा किस दिन को फ़ज़ीलत हासिल है? अगर ये देखा जाए तो ग्यारहवीं से कहीं ज्यादा नवीं को फ़ज़ीलत मिली है, जैसा कि रसूले मुकर्रम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का फरमान है कि:
"अरफ़ा (नवीं ज़ुल्हिज्जा) का रोज़ा दो साल के रोजों के बराबर और आशूरा का रोज़ा एक साल के रोजों के बराबर है "
(मुसनदे अहमद,बहवाला इस्लामी महीनों के फ़ज़ाइल, पे० 17)
लिहाजा! मोहर्रम की दसवीं और ग्यारहवीं के रोज़े रखने से बेहतर है कि अरफ़ा और आशूरा यानी नवीं और दसवीं मोहर्रम के रोज़े रख कर ज़्यादा सवाब कमाए जाएं
आशूरा के दिन यह काम भी ज़रूर करें
हम सब के आक़ा हुज़ूर सरवरे कौनैन सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का फरमान है कि
जो दसवीं मोहर्रम को अपने बच्चों के ख़र्च में फ़राख़ी (ख़ूब ख़र्च) करेगा अल्लाह पाक सारा साल उसको फ़राख़ी देगा।
हज़रत सुफियान रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं कि हम ने इस हदीस का तजर्बा किया तो ऐसा ही पाया।
(मिश्कातुल मसाबीह, बहवाला इस्लामी महीनों के फ़ज़ाइल, पे०28)
हकीमुल उम्मत मुफ्ती अहमद यार ख़ान नईमी रहमतुल्लाह अलैह इस हदीस पाक के तहत फरमाते हैं कि:
मोहर्रम की दसवीं तारीख को अपने बाल बच्चों, नौकर ख़ादिमों, फ़ुक़रा मसाकीन के लिए मुख्तलिफ किस्म के खाने तैयार करे तो इंशा अल्लाह तआला साल भर तक इन खानों में बरकत होगी, मुसलमान आशूरा के दिन हलीम यानी खिचड़ा पकाते हैं इसका माखज़ यह हदीस है क्योंकि हलीम यानी खिचड़े में हर खाना होता है गंदुम (गेहूं) गोश्त और दालें चावल वगैरह, तो इंशाल्लाह हलीम पकाने वाले के घर इन तमाम खानों में बरकत होगी।
मोहर्रम का खिचड़ा और रोज़ा रखना?
फिर हजरत सुफियान रहमतुल्लाह अलैह के कौल की वजाहत करते हुए मुफ्ती साहब फरमाते हैं कि
यानी हज़रत सुफियान फरमाते हैं कि यह हदीस हमारे और हमारे साथियों के तजुर्बा में आई है वाकई इस अमल से बरकत होती है लिहाजा यह हदीस क़वी है ख्याल रहे कि तजुर्बा से भी हदीस को तक़वियत पहुंचती है इसलिए मुहद्दसीन हदीस की तौसीक़ के लिए कभी अपने तजुर्बा का जिक्र कर देते हैं यहां भी ऐसा ही है।
मज़ीद मुफ़्ती साहब अलैहिर रहमह फ़रमाते हैं कि
ख्याल रहे कि आशूरा के दिन खुद रोजा रखो और बच्चों को और फ़ुक़रा को खूब खिलाओ पिलाओ लिहाजा यह हदीस आशूरा के रोजा के खिलाफ नहीं"
(इस्लामी महीनों के फ़ज़ाइल, पे०29)
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